भगवान श्रीराम की आरती (Sri Ram Ji Ki Aarti) एक नहीं बल्कि कई आरतियाँ प्रसिद्ध हैं जो समय-समय पर भिन्न-भिन्न महापुरुषों व ऋषियों के द्वारा लिखी गयी है। प्रत्येक आरती के माध्यम से श्रीराम के गुणों व व्यक्तित्व का वर्णन किया जाता है ताकि आमजन उनकी आराधना करने के साथ-साथ उनसे प्रेरणा ले सकें।
Sri Ram Ji Ki Aarti Lyrics in Hindi
|| पहली आरती ||
आरती कीजै रामचन्द्र जी की।
हरि-हरि दुष्टदलन सीतापति जी की॥
पहली आरती पुष्पन की माला।
काली नाग नाथ लाये गोपाला॥
दूसरी आरती देवकी नन्दन।
भक्त उबारन कंस निकन्दन॥
तीसरी आरती त्रिभुवन मोहे।
रत्न सिंहासन सीता रामजी सोहे॥
चौथी आरती चहुं युग पूजा।
देव निरंजन स्वामी और न दूजा॥
पांचवीं आरती राम को भावे।
रामजी का यश नामदेव जी गावें॥
|| दूसरी आरती ||
आरती कीजै श्री रघुवर जी की।
सत चित आनन्द शिव सुन्दर की॥
दशरथ तनय कौशल्या नन्दन।
सुर मुनि रक्षक दैत्य निकन्दन॥
अनुगत भक्त भक्त उर चन्दन।
मर्यादा पुरुषोत्तम वर की॥
निर्गुण सगुण अनूप रूप निधि।
सकल लोक वन्दित विभिन्न विधि॥
हरण शोक-भय दायक नव निधि।
माया रहित दिव्य नर वर की॥
जानकी पति सुर अधिपति जगपति।
अखिल लोक पालक त्रिलोक गति॥
विश्व वन्द्य अवन्ह अमित गति।
एक मात्र गति सचराचर की॥
शरणागत वत्सल व्रतधारी।
भक्त कल्प तरुवर असुरारी॥
नाम लेत जग पावनकारी।
वानर सखा दीन दुख हर की॥
|| तीसरी आरती ||
हरति सब आरती आरती रामकी।
दहन दुख-दोष निरमूलिनी कामकी॥
सुभग सौरभ धूप दीपबर मालिका।
उड़त अघ-बिहँग सुनि ताल करतालिका॥
भक्त-हृदि-भवन अज्ञान-तम-हारिनी।
बिमल बिग्यानमय तेजबिस्तारिनी॥
मोह-मद-कोह-कलि-कंज-हिम-जामिनी।
मुक्तिकी दूतिका देह-दुति दामिनी॥
प्रनत-जन-कुमुद-बन-इंदु-कर-जालिका।
तुलसि अभिमानमहिषेस बहु कालिका॥
|| चौथी आरती ||
ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन।
हरन दुखदुंद गोबिंद आनंदघन॥
अचर चर रूप हरि, सर्वगत, सर्वदा
बसत इति बासना धूप दीजै।
दीप निजबोधगत कोह-मद-मोह-तम
प्रौढ़ अभिमान चित्तवृत्ति छीजै॥
भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ
श्रीरमण परम संतोषकारी।
प्रेम-तांबूल गत शूल संशय सकल,
विपुल भव-वासना-बीजहारी॥
अशुभ-शुभ कर्म घृत-पूर्ण दशवर्तिका,
त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली,
अर्पि नीराजनं जगनिवासं॥
विमल हृदि-भवन कृत शांति-पर्यंक शुभ,
शयन विश्राम श्रीरामराया।
क्षमा-करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया॥
आरती-निरत सनकादि, श्रुति, शेष, शिव,
देवरिषि, अखिलमुनि तत्त्व-दरसी।
करै सोइ तरै, परिहरै कामादि मल,
वदति इति अमलमति दास तुलसी॥
|| पांचवी आरती ||
बंदौ रघुपति करुना-निधान।
जाते छूटै भव-भेद-ग्यान॥
रघुबंस-कुमुद-सुखप्रद निशेष।
सेवत पद-पंकज अज महेश॥
निज भक्त-हृदय पाथोज-भृंग।
लावन्यबपुष अगनित अनंग॥
अति प्रबल मोह-तम-मारतंड।
अग्यान-गहन-पावक-प्रचंड॥
अभिमान-सिंधु-कुम्भज उदार।
सुररंजन, भंजन भूमिभार॥
रागादि-सर्पगन-पन्नगारि।
कंदर्प-नाग-मृगपति, मुरारि॥
भव-जलधि-पोत चरनारबिंद।
जानकी-रवन आनंद-कंद॥
हनुमंत-प्रेम-बापी-मराल।
निष्काम कामधुक गो दयाल॥
त्रैलोक-तिलक, गुनगहन राम।
कह तुलसिदास बिश्राम-धाम॥
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